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मंगलवार, 25 नवंबर 2025

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कैसे हुआ रावण कुल का जन्म | Kaise Hua Ravan Kul Ka Janm

कैसे हुआ रावण कुल का जन्म | Kaise Hua Ravan Kul Ka Janm

रावण! एक ऐसा नाम, जिसे आप सबने अवश्य ही सुना होगा, लेकिन क्या आप रावण कुल के बारे में जानते हैं, कि कैसे रावण कुल का जन्म हुआ? किस एक श्राप के कारण, रावण के पिता का जन्म हुआ? तो चलिए जानते हैं।

एक बार की बात है दशरथ पुत्र भगवान श्री राम जी ने अगस्त्य मुनि से लंकाधि पति रावण के पूर्वजों तथा परिवारजन एवम उनके स्वयं के जीवनवृत्त के बारे में प्रश्न किया? तब महामुनि अगस्त्य जी ने कहा- हे राम! इंद्रजीत लंकाधि पति रावण के महान बल साहस का तेज सुनो जिसके कारण वह अपने शत्रुओं को मार गिराता था किंतु उसका कोई शत्रु उसको नहीं मार पाता था। लेकिन हे राघव! रावण के बारे में वर्णन करने से पहले मैं आपको रावण के कुल और वर प्राप्ति के बारे में बताता हूं सुनो…

कैसे हुआ रावण कुल का जन्म | Kaise Hua Ravan Kul Ka Janm

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प्राचीन समय सतयुग में प्रजापति ब्रह्मा जी के एक पुत्र पुलत्स्य थे। वह ब्रहमर्शी पुलत्स्य ब्रह्मा जी की तरह ही तेजस्वी और शूरवीर थे। उनके गुण, धर्म और शील का वर्णन करना संभव नहीं है, उनके बारे में बस इतना ही अधिक है कि वह प्रजापति ब्रह्मा जी के पुत्र थे और इसी कारण वह सभी देवताओं को भी प्रिय थे।

वह गुणवान, बुद्धिमान और सर्वप्रिय तथा श्रेष्ठ थे। एक बार वह धार्मिक यात्रा के लिए महागिरी सुमेरू पर्वत के पास राजर्षी तृणविंदू के आश्रम पर गए और वहीं पर रहने लगे। वह दानवीर-धर्मात्मा तपस्या करते हुए स्वाध्याय और जितेंद्रिय में संलग्न रहते थे। परंतु कुछ कन्याएं उनके आश्रम में पहुंच कर उनकी तपस्या में विघ्न पैदा करती थीं। राजर्शियों, ऋषियों और नागों तथा कुछ अप्सराएं भी खेल-खिलाव करती हुई उनके आश्रम में प्रवेश कर जाती थी।

सभी ऋतुओं में यह वन रमणीय और सेवनीय था। अत: वे सभी कन्याएं हर रोज़ वहां जाकर भिन्न भिन्न क्रीड़ाये करती थी। जिस स्थान पर ब्राह्मण श्रेष्ठ ऋषि पुलत्स्य रहते थे, वह तो और अधिक रमणीय था। अत: वे सभी कन्याएं वहां पहुंचकर नित्य गायन, वादन तथा नृत्य करती थीं। अपनी इन्हीं गतिविधियों द्वारा वे सभी कन्याएं मुनि के तप में बाधा एवम विघ्न उत्पन्न करती थीं। इसी कारण एक दिन महातेजस्वी मुनि पुलत्स्य जी क्रोधित हो उठे।

अतः उन्होंने यह घोषणा कर दी कि, "कल से मुझे इस स्थान पर जो कन्या दिखाई देगी, वह गर्भवती हो जायेगी।" उनके इस ब्रह्म श्राप को सुनकर वे सभी कन्याएं भयभीत हो गई और उनके आश्रम क्षेत्र में जाना छोड़ दीया। किंतु राजर्षी तृणविंदु की कन्या ने ऋषि के श्राप को नहीं सुना था। इसलिए वह अगले दिन भी बिना किसी भय के रोज़ की तरह आश्रम में पहुंच कर टहलने लगी। परंतु उसने देखा कि आज वहां उसकी कोई भी सखी नहीं है।

उस समय वहां प्रजापति के पुत्र महातेजस्वी महान ऋषि पुलस्त्य जी अपनी तपस्या में संलग्न होकर वेदों का स्वाध्याय कर रहे थे। उनकी वेदों की आवाज सुनकर वह उसी ओर चली गई और वहां उसने तपोनिधि मुनिजी को देखा। महर्षि पुलस्त्यजी को देखते ही उस कन्या का शरीर पीला पड़ गया और वह गर्भवती हो गई। उस भयंकर दोष को अपने शरीर में देखकर वह राजकन्या घबरा गई। उसके बाद वह यह सोचती हुई कि मुझे यह क्या हो गया है?

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अपने पिता के आश्रम में जा पहुंची। कन्या की स्थिति को देखकर तृणबिन्दु ने पूछा, हे पुत्री! तुम्हारे शरीर की यह दशा कैसे हो गई? उस समय उस दीनभावपन्न कन्या ने अपने तपस्वी पिता से हाथ जोड़कर कहा- हे तात! मैं उस वजह को नहीं जानती जिसके कारण मेरा शरीर ऐसा हो गया है। कुछ समय पहले अपनी सखियों को ढूंढ़ती हुई मैं महर्षि पुलस्त्य के आश्रम में गई थी। परंतु वहां मैने अपने किसी भी सखी को नहीं पाया उसी समय मेरा ये हाल हो गया! इसी भय के कारण मैं यहां चली आई। राजर्षी तृणबिंदु अपनी घोर तपस्या के कारण स्वयं प्रकाशित थे।

जब उन्होने अंतर्ध्यान होकर देखा तो उन्हें यह ज्ञात हुआ कि यह सब कुछ ऋषी पुलस्त्य के कारण हुआ है। महर्षी के श्राप को जानने के बाद वह अपनी पुत्री के साथ पुलस्त्य जी के आश्रम जा पहुंचे और उनसे कहा- हे भगवन! यह मेरी पुत्री उच्च गुणों से विभूषित है। हे महर्षी! इसे आप स्वयं अपने आप प्राप्त होने वाली भिक्षा के रूप में ग्रहण कर लें। आप तपस्या और आराधना करने के कारण थकान का अनुभव करते होंगे। यह आपकी सेवा में निःसंदेह संलग्न रहेगी। राजर्षी तृणविंदू का कथन सुनकर महर्षी पुलस्त्य जी ने उस कन्या को ग्रहण करने की इच्छा प्रकट करते हुए कहा-बहुत अच्छा।

उस समय राजर्षि तृणविन्दु अपनी कन्या को महर्षि को सौंपकर अपने आश्रम लौट पड़े। उसके बाद वह कन्या अपने गुणों और बुद्धि की सहायता से अपने पति को संतुष्ट रखने का प्रयास करती हुई वहां रहने लगी और अपने सदाचरण एवम शील व्यवहार से मुनिश्रेष्ठ को संतुष्ट कर दिया। उसके कारण एक दिन महातेजस्वी मुनिवर पुलस्त्य ने प्रसन्न होकर उससे कहा- हे सुन्दरी मैं तुम्हारे गुणों और व्यवहार के संपत्ति रूपी भण्डार से बहुत प्रसन्न हुआ, अत: हे देवी! मैं तुम्हें अब एक ऐसा पुत्र प्रदान करूंगा जो ठीक मेरे जैसा ही होगा।

माता-पिता दोनों कुलों के प्रतिष्ठा को बढ़ावा देने वाला यह बालक 'पौलस्त्य' के नाम से प्रसिद्ध होगा। जब मैं वेद पाठ कर रहा था, उस समय विशेष रूप से तुमने उसे श्रवण किया था। इसलिए उस बालक का नाम 'विश्रवा' होगा। महर्षि के यह कहने पर वह देवी अत्यन्त प्रसन्न हुईं। कुछ समय के बाद उस देवी ने "विश्रवा" नामक पुत्र को जन्म दिया, जो धर्म, यश एवम परोपकार से समन्वित होकर, तीनों लोकों में अत्यधिक प्रसिद्ध हुआ। "विश्रवा" नाम के यह मुनि वेदज्ञ, व्रत, आचारों और समदर्शी का पालन करने वाले ठीक अपने पिता के समान ही महान तेजस्वी थे।

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महर्षि पुलस्त्य के यह पुत्र मुनिश्रेष्ठ विश्रवा कुछ ही वर्ष बाद पिता की भांति तपस्या करने में संलग्न हो गए। वे सत्यवादी सदैव ही धर्म में तत्पर रहने वाले स्वाध्यायी, पवित्र, परायण, जितेन्द्रिय एवं शीलवान आदि सभी प्रकार के गुणों से संलिप्त थे। महामुनि विश्रवा के इन महान गुणों तथा सद्वृत्तों के बारे में जानकारी पाकर, महामुनि भारद्वाज ने देवाङ्गनाओं के समान अपनी सुन्दर कन्या का विवाह उनके साथ कर दिया। मुनिश्रेष्ठ धर्मज्ञ विश्रवा ने महर्षि भारद्वाज की कन्या को प्रसन्नतापूर्वक तथा धर्मानुसार ग्रहण किया।

फिर जन-प्रजा के हित-चिन्तन करने वाली बुद्धि द्वारा जन-कल्याण की कामना करते हुए। उन्होंने उस कन्या के गर्भ से एक पराक्रमी तथा अद्भुत पुत्र उत्पन्न किया जो उनके समान ही समस्त गुणों से सम्पन्न था। इसके आगे मुनि विश्रवा के इस पुत्र यानि रावण के सौतेले भाई के बारे में अगले भाग में जानेंगे।